Friday 20 October 2017

मयस्सर डोर से फिर एक मोती झड़ रहा है ,
तारीखों के जीने से दिसम्बर उतर रहा है |

कुछ चेहरे घटे , चंद यादे जुड़ी गए वक़्त में, 
 उम्र का पंछी नित दूर और दूर उड़ रहा है |...
 गुनगुनी धूप और ठिठुरी राते जाड़ो की,
 गुजरे लम्हों पर झिना झिना पर्दा गिर रहा है।
 फिर दिसम्बर गुजर रहा है



मिट्टी का जिस्म एक दिन मिट्टी में मिलेगा ,
 मिट्टी का पुतला किस बात पर अकड़ रहा है |
 जायका लिया नही और फिसल रही जिन्दगी ,
आसमां समेटता वक़्त बादल बन उड़ रहा है |.........फिर दिसम्बर गुज़र रहा है

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